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दुनिया में दुखियों ने जितने आँसू बहाये है, उनका पानी महासागर में जितना जल है उससे भी अधिक है।
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विश्व में आनन्द की आशा करना महान् मूर्खता ही नहीँ,अपितु पागलपन है।
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जीवन एक ऐसा व्यवसाय है जिसमे मूलधन की भी पूर्ति नहीँ होती।
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अविद्या ही दुखों का मूल कारण है।
प्रत्येक विषय का कुछ-न-कुछ कारण होता है।
कोई भी घटना अकारण उपस्थित नहीँ हो सकती।
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एक व्यक्ति यदि अपने जीवनकाल में ही राग, द्वेष, मोह, आसक्ति, अहंकार, इत्यादि पर विजय पा लेता है, तब वह मुक्त ही जाता है।
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निर्वाण-प्राप्ति के बाद शरीर विद्यमान रहता है, क्योंकि शरीर पूर्व जन्मों के कर्मों का फल है।
जब तक वे कर्म समाप्त नहीँ होते शरीर विद्यमान रहता है।
बुद्ध की यही धारणा उपनिषदों की जीवन-मुक्ति से मेल खाती है।
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सुख की अनुभूति अस्थाई ओर दुखप्रद है, परंतु शांति की अनुभूति अमृत तुल्य है।
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निर्वाण से समस्त दुखों ओर उनके कारणों का अन्त हो जाता है।
निर्वाण से पुनर्जन्म का अन्त हो जाता है।
निर्वाण प्राप्त व्यक्ति शेष जीवन गहरी शांति से जीता है,
निर्वाण से प्राप्त शांति ओर सांसारिक वस्तुओं से प्राप्त शांति में अन्तर है।
सांसारिक वस्तुओं से प्राप्त शांति अस्थाई ओर दुखदायी होती है। परंतु निर्वाण से प्राप्त शांति स्थाई ओर आनन्ददायक होती है।
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वस्तुओं के यथार्थ स्वरूप कॊ जानना ही अविद्या कॊ दूर करने का साधन है, जिसे सम्यक् दृष्टि कहते है।
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सम्यक् समाधि में चित्त की वृतियों का पूर्णतया निरोध हो जाने से सभी प्रकार के दुखों का पूर्णतया निरोध हो जाता है।
यह अवस्था सुख-दुख से परे निर्वाण अवस्था है।
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आत्म-दीपो भव - आप ही अपना प्रकाश(गुरु) बनो।
बिना विवेक-विचार अर्थात बिना सोचे-समझे किसी बात कॊ कभी स्वीकार नहीँ करना चाहिये।
साभार: व्हाट्सएप्प ग्रुप मेसेज
भारतीय दर्शन-प्रो. हरेन्द्र प्रसाद सिन्हा (मगध विश्वविद्यालय)